Monday, 3 December 2018

नारायण-मन्त्र की महिमा



पूर्वकल्प में आरुणि नाम से विख्यात एक महान् तपस्वी ब्राह्मण थे| वे किसी उद्देश्य से तप करने के लिये वन में गये और वहाँ उपवासपूर्वक तपस्या करने लगे| उन्होंने देविका नदी के सुन्दर तटपर अपना आश्रम बनाया था|


एक दिन वे स्नान पूजा करने के विचार से नदी के तट पर गये| वहाँ स्नान करके जब वे जप कर रहे थे, उसी समय उन्होंने सामने से आते हुए एक भयंकर व्याध को देखा, जो हाथ में बड़ा-सा धनुष लिये हुए था|उसकी आँखें बड़ी क्रूर थीं| वह उन ब्राह्मण के वल्कल-वस्त्र छिनने और उन्हें मारने के विचार से आया था| उस ब्रम्हघाती को देखकर आरुणि के मन में घबराहट उत्पन्न हो गयी और वे भय से थरथर काँपने लगे, किंतु ब्राह्मण के अन्तःशरीर में भगवान् नारायण को देखकर वह व्याध डर-सा गया| उसने उसी क्षण धनुष और बाण हाथ से गिरा दिया और कहा-‘ब्रह्मन्! मैं आपको मारने के विचार से ही यहाँ आया था, किन्तु आपको देखते ही पता नहीं मेरी वह क्रूर-बुद्धि अब कहाँ चली गयी| विप्रवर! मेरा जीवन सदा पाप करने में ही बीता है| अबतक मेरे द्वारा हजारों ब्राह्मण मृत्यु के मुख में प्रविष्ट हो चुके हैं| प्रायः दस हजार साध्वी स्त्रियों को मैंने अन्त कर डाला है| अहो! ब्राह्मण की हत्या करने वाला मैं पापी पता नहीं किस गति को प्राप्त होऊँगा? महाभाग! अब आपके पास रहकर मैं भी तप करना चाहता हूँ| आप कृपया उपदेश देकर मेरा उद्धार करें|’


व्याध के इस प्रकार कहने पर उसे ब्रम्हघाती एवं महान् पापी समझकर द्विजश्रेष्ठ आरुणि ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया, परन्तु हृदय में धर्म की अभिलाषा जग जाने के कारण ब्राह्मण के कुछ न कहने पर भी वह व्याध वहीं ठहर गया| आरुणि भी नदी में स्नान कर वृक्ष के नीचे बैठे हुए तप करते रहे| इस प्रकार अब उन दिनों का नियमित धार्मिक कार्यक्रम चलने लगा| इसी प्रकार कुछ दिन बीत गये| एक दिन की बात है-आरुणि स्नान करने के लिये नदी के जल में घुसे थे, तबतक कोई भूख से व्याकुल बाघ उन शान्तस्वरूप मुनि को मारने के लिये आ पहुँचा| पर इसी बीच व्याध ने बाघ को मार डाला| उस बाघ के शरीर से एक पुरुष निकला| बात ऐसी थी-जिस समय आरुणि जल में थे और बाघ उन पर झपटा, उस समय घबराहट के कारण मुनि के मुँह से सहसा ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह मन्त्र निकल पड़ा| तब तक बाघ के प्राण कण्ठगत ही थे, अतः उसने यह मन्त्र सुन लिया| प्राण निकलते समय केवल इस मन्त्र को सुन लेने से वह एक दिव्य पुरुष के रूप में परिणत हो गया| तब उसने कहा-‘द्विजवर! जहाँ भगवान् विष्णु विराजमान हैं, मैं वहीं जा रहा हूँ| आपकी कृपा से मेरे सारे पाप धुल गये| अब मैं शुद्ध एवं कृतार्थ हो गया|’


इस प्रकार उस पुरुष के कहने पर विप्रवर आरुणि ने उससे पूछा-‘नरश्रेष्ठ! तुम कौन हो?’ तब वह पूर्वजन्म की आप-बीती कहने लगा-‘मुने! मैं पूर्वजन्म में ‘दीर्घबाहु’ नाम से प्रसिद्ध एक राजा था| समस्त वेद और सम्पूर्ण धर्मशास्त्र मुझे सम्यक् प्रकार से अभ्यस्त थे| अन्य शास्त्र भी मुझसे अपरिचित नहीं थे| पर अन्य ब्राह्मणों से मेरा कोई प्रयोजन न था| मैं प्रायः ब्राम्हणों को अपमान भी कर देता था| मेरे इस व्यवहार से सभी ब्राह्मण क्रुद्ध हो गये और उन्होंने मुझे शाप दे दिया-‘तू अत्यन्त निर्दयी बाघ होगा, क्योंकि तेरे द्वारा ब्राह्मणों का महान् अनादर हो रहा है| तुझे किसी बात का स्मरण भी न रहेगा|’


विप्रवर! वे सभी ब्राह्मण वेद के पारगामी विद्वान थे| उनका घोर शाप मुझे लग गया| मुने! जब ब्राह्मणों ने शाप दिया तो मैं उनके पैरों पर गिर पड़ा तथा उनसे कृपापूर्वक क्षमा की भीख माँगी| मुझ पर उनकी कृपादृष्टि हो गयी| अतएव उन्होंने मेरे उद्धार की बात बताते हुए-कहा-‘प्रत्येक छठे दिन मध्यान्हकाल में तुझे जो कोई मिले, उसे तू खा जाना-वह तेरा आहार होगा| जब तुझे बाण लगेगा और उसके आघात से तेरे प्राण कण्ठ में आ जायँ, उस समय किसी ब्राह्मण के मुख से जब ‘ॐ नमो नारायणा’ यह मन्त्र तेरे कानों में पड़ेगा, तब तुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो जायगी-इसमें कोई संशय नहीं, मुने! मैंने दूसरे के मुख से भगवान् विष्णु का यह नाम सुना हिया| जिसके परिणाम स्वरूप मुझे ब्रम्हाद्वेषी को भी भगवान् नारायण का दर्शन सुलभ हो गया|फिर जो अपने मुँह से ‘ॐ हरये नमः’ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए प्राणों का त्याग करता है, वह परम पवित्र पुरुष जीते-जी ही मुक्त है| मैं भुजा उठाकर बार-बार कहता हूँ-यह सत्य है, सत्य है और निश्चय ही सत्य है| ब्राह्मण चलते-फिरते देवता हैं| भगवान् पुरुषोत्तम कूटस्थ पुरुष हैं|’


ऐसा कहकर शुद्ध अन्तःकारण वाला वह बाघ (दिव्य पुरुष) स्वर्ग चला गया और आरुणि भी बाघ के पंजे से छूटकर व्याध से कहने लगे-‘आज बाघ मुझे खाने के लिये उद्यत हो गया था| ऐसे अवसर पर तुमने मेरी रखा की है| अतएव उत्तम व्रत का पालन करने वाले वत्स! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे वर माँगो|’


व्याध ने कहा-‘ब्राह्मणदेव! मेरे लिये यही वर पर्याप्त है, जो आप प्रेमपूर्वक मुझसे बातें कर रहे हैं| भला,आप ही बताइये, इससे अधिक वर लेकर मुझे करना ही क्या है?’


आरुणि ने कहा-‘व्याध! तुम्हारी तपस्या करने की इच्छा थी, अतएव तुमने मुझसे प्रार्थना की थी, किंतु अनघ! उस समय तुम में अनेक प्रकार के पाप थे| तुम्हारा रूप बड़ा भयंकर था, परन्तु अब तुम्हारा अन्तःकरण परम पवित्र हो गया है, क्योंकि देविका नदी में स्नान करने, मेरा दर्शन करने तथा चिरकाल तक भगवान् विष्णु का नाम सुनने से तुम्हारे पाप नष्ट हो गये हैं, इसमें कोई संशय नहीं| साधो! अब मेरा यह एक वर स्वीकार कर लो कि तुम अब यही रहकर तपस्या करो; क्योंकि तुम इसके लिये बहुत पहले से इच्छुक भी थे|’


इस प्रकार नारायण-मन्त्र के प्रभाव से पापरहित हुआ व्याध आरुणि मुनि की आज्ञा से वहीं रहकर तप करने लगा|

Tuesday, 20 January 2015

सुन्दरकाण्ड का पाठ








सुन्दरकाण्ड का नित्यप्रति पाठ करना हर प्रकार से लाभ दायक होता है, इसकेअनंत लाभ है, इस पाठ को हनुमान जी के सामने चमेली के तेल का दीपक लगा करकरने से अधिक फल प्राप्त होता है, सुन्दरकाण्ड एक ऐसा पाठ है जो की हरप्रकार की बाधा और परेशानियों को खतम कर देने में पूर्णतः समर्थ है. आजकलके व्यस्तता भरे दिनचर्या में बहुत अधिक समय तक पूजा कर पाना हमेशा संभवनहीं होता, ऐसे में इस पाठ को आप पूरा पढ़ सके तो बहुत अच्छा है पर नहीं पढ़सकते या समय का आभाव है तो ऐसा करे के इसमें कुल ६० दोहे है, हर दिन १०दोहों का आप पाठ कर ले,ये आप मंगलवार से शुरू कर सकते है जो की रविवार तकखतम हो जायेगा, ऐसे आप बार बार कर सकते है पर इस चीज़ का विशेष ख्याल रखनाबहुत जरुरी है के आप जब तक पाठ करे न तो मांस मदिरा का सेवन करे न ही अपनेघर में मांस मदिरा लाये जब तक पाठ हो आपको ब्रह्मचर्य और सदाचार अपनानाहोगा अन्यथा दोष के भागी बनेंगे..

Clicl here for read Sundarkand-

http://www.gitapress.org/books/1378/1378%20Sunderkand%20&%20Hanuman%20Chalisa.pdf

आइये जाने ज्योतिष के अनुसार सुन्दरकाण्ड का पाठ किसके लिए विशेष फलदाई मन जाता है-

ज्योतिष के अनुसार भी सुन्दरकाण्ड एक अचूक उपाय है ज्योतिषो के द्वाराउपाय के तौर पर अक्सर बताया जाता है, उन लोगो के लिए ये विशेष फलदाई होताहै जिनकी जन्म कुंडली में – मंगल नीच का है, पाप ग्रहों से पीड़ित है, पापग्रहों से युक्त है या उनकी दृष्टि से दूषित हो रहा है, मंगल में अगर बलबहुत कम हो, अगर जातक के शरीर में रक्त विकार हो, अगर आत्मविश्वास की बहुतकमी हो, अगर मंगल बहुत ही क्रूर हो तो भी ये पाठ आपको निश्चित रहत देगा.अगर लगन में राहू स्थित हो, लगन पर राहू या केतु की दृष्टि हो, लगन शनि यामंगल के दुष्प्रभावो से पीड़ित हो, मंगल अगर वक्री हो या गोचर में मंगल केभ्रमण से अगर कोई कष्ट आ रहे हो, शनि की सादे साती या ढैय्या से आप परेशानहो, इत्यादि….. इन सभी योगो में सुन्दरकाण्ड का पाठ अचूक फल दायक मानाजाता है…

सुन्दरकाण्ड के पाठ से बहुत सारे लाभ होते है उनमे से कुछ हम यहाँ बता रहे है -


१) इसका पाठ करने से विद्यार्थियों को विशेष लाभ मिलता है, ये आत्मविश्वासमें बढोतरी करता है और परीक्षा में अच्छे अंक लाने में मददगार होता है, बुद्धि कुशाग्र होती है, अगर बहुत छोटे बच्चे है तो उनके माता या पिता उनकेलिए इसका पाठ करे.

२) इसका पाठ मन को शांति और सुकून देता है मानसिक परेशानियों और व्याधियो से ये छुटकारा दिलवाने में कारगर है,

३) जिन लोगो को गृह कलेश की समस्या है इस पाठ से उनको विशेष फल मिलते है,

४) अगर घर का मुखिया इसका पाठ घर में रोज करता है तो घर का वातावरण अच्छा रहता है,

५) घर में या अपने आप में कोई भी नकारात्मक शक्ति को दूर करने का ये अचूक उपाय है,

६) अगर आप सुनसान जगह पर रहते है और किसी अनहोनी का डर लगा रहता हो तो उसस्थान या घर पर इसका रोज पाठ करने से हर प्रकार की बाधा से मुक्ति मिलती हैऔर आत्मबल बढ़ता है.

७) जिनको बुरे सपने आते हो रात को अनावश्यक डर लगता हो इसके पाठ निश्चित से आराम मिलेगा.

८) जो लोग क़र्ज़ से परेशान है उनको ये पाठ शांति भी देता है और क़र्ज़ मुक्ति में सहायक भी होता है,

९) जिस घर में बच्चे माँ पिता जी के संस्कार को भूल चुके हो, गलत संगत मेंलग गए हो और माँ पिता जी का अनादर करते हो वहा भी ये पाठ निश्चित लाभकारीहोता है.

१०) किसी भी प्रकार का मानसिक या शारीरिक रोग भले क्यों न हो इसका पाठ लाभकारी होता है.

११) भूत प्रेत की व्याधि भी इस पाठ को करने से स्वतः ही दूर हो जाती है.

१२) नौकरी में प्रमोशन में भी ये पाठ विशेष फलदाई होता है.

१३) घर का कोई भी सदस्य घर से बाहर हो आपको उसकी कोई जानकारी मिल पा रहीहो या न भी मिल पा रही हो तो भी आप अगर इसका पाठ करते है तो सम्बंधितव्यक्ति की निश्चित ही रक्षा होगी, और आपको चिंता से भी राहत मिलेगी.


१४)श्री हनुमान के दिव्य और संकटमोचक चरित्र का दर्शन श्री रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में होता है। इसलिए सुन्दरकाण्ड का पाठ व्यावहारिक जीवन में आने वाली संकट, विपत्तियों और परेशानियों को दूर करने में बहुत ही असरदार माना जाता है।

और इसके अलावा ऐसे बहुत से लाभ है जो सुन्दरकाण्ड से मिलते है आप सभी इसपाठ का लाभ उठाये और अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव महसूस करे, जीवन सार्थकबनाये इस पाठ के मदद से हर दिन को नए उत्साह से जिए और परेशानियों सेनिजात पाए..






Friday, 3 October 2014

The Story Of Dussehra







According to legend, Rama was the eldest son of King Dashrath and was beloved of all because of his genial ways. The king decided to hand over his throne to him and retire. However, Rama's stepmother wanted her own son Bharata to be the king and forced the king to banish Rama from Ayodhya, the kingdom and give him fourteen years of exile. Rama gladly accepted the stepmother's wishes and left the palace and the kingdom with his wife Sita, and brother Lakshmana. The grief-stricken father soon died. However, when Bharata who was on a visit to his maternal grandfather came back and came to know what his mother had done, he immediately set out to being his brother back from the forest. "However, though Rama was glad to welcome his brother, he refused to go back to the kingdom before the term expired. However, Rama had another loss at hand as the demon-king Ravana, kidnapped his wife Sita and took her away to his kingdom. This became the reason behind the long search and the various events that in time, led to the destruction of Ravana by the hands of Ravan with the help of the monkey army he had befriended on the way. Dussehra is the day, when Rama killed Ravana and won back his wife (Hence also called Vijayadashmi) who had managed to save her honor from the dirty hands of Ravana.

According to Hindu mythology a demon named Mahishasura, earned the favor of Lord Shiva after a long and hard penance. Lord Shiva, impressed with his devotion, blessed him that no man or deity would be able to kill him and that only a woman can kill him. Mahishasur was very pleased with this boon as he thought that a woman can never defeat him. Arrogant Mahishasura started his reign of terror over the Universe and people were killed mercilessly. He even attacked the abode of the gods and conquered the heavens and became their leader.

The Defeat Of Gods

After their defeat and humiliation at the hands of Mahishasur, the gods took refuge under Lord Brahma, who took them to Lord Shiva and Lord Vishnu. The only solution left was the creation of a woman who possess the ultimate power to fight and defeat Mahishasur. Pure energy blazed forth from Brahma, Vishnu and Shiva - the trinity forming the pure energy of Godhood, all concentrating at one point that took the form of Goddess Durga.

Culmination Of Energies

Her face reflected the light of Shiva, her ten arms were from Lord Vishnu, her feet were from Lord Brahma, the tresses were formed from the light of Yama, the god of death and the two breasts were formed from the light of Somanath, the Moon God, the waist from the light of Indra, the king of gods, the legs and thighs from the light of Varun, the god of oceans and hips from the light of Bhoodev (Earth), the toes from the light of Surya (Sun God), fingers of the hand from the light of the Vasus, the children of Goddess river Ganga and nose from the light of Kuber, the keeper of wealth for the Gods. The teeth were formed from the light of Prajapati, the lord of creatures, the Triad of her eyes was born from the light of Agni, the Fire God, the eyebrows from the two Sandhyas,ie, sunrise and sunset, the ears from the light of Vayu, the god of Wind. Thus from the energy of these gods, as well as from many other gods, was formed the goddess Durga.

Power Of Weapons

The gods then gifted the goddess with their weapons and other divine objects to help her in her battle with the demon, Mahishasura. Lord Shiva gave her a trident while Lord Vishnu gave her a disc. Varuna, gave her a conch and noose, and Agni gave her a spear. From Vayu, she received arrows. Indra, gave her a thunderbolt, and the gift of his white-skinned elephant Airavata was a bell. From Yama, she received a sword and shield and from Vishwakarma (god of Architecture), an axe and armor. The god of mountains, Himavat gifted her with jewels and a lion to ride on. Durga was also given many other precious and magical gifts, new clothing, and a garland of immortal lotuses for her head and breasts.

The beautiful Durga, bedecked in jewels and golden armor and equipped with the fearsome weaponry of the gods, was ready to engage in battle with the fierce and cruel Mahishasura. Mahishasura and his demon allies found their attention drawn from heaven to Earth, as Durga's power moved its way towards heaven. Though confident of their power and control in heaven, the demons could not help being awestruck.

The Battlefield

As Mahishasura's armies were struck down effortlessly by Durga, it became obvious to him that he was not as secure in heaven as he had thought. No demon could fight her and win. Her breath would replenish her armies - bringing back to life all of her soldiers who fell. The demons were in chaos and were easily defeated and captured. Mahishasura was shocked and enraged by the disastrous events on the battlefield. He took on the form of a demonic buffalo, and charged at the divine soldiers of Durga, goring and killing many and lashing out with his whip-like tail. Durga's lion pounced on the demon-buffalo and engaged him in a battle. While he was thus engaged, Durga threw her noose around his neck.




Mahishasura then assumed the form of a lion and when Durga beheaded the lion, Mahishasura escaped in the form of a man who was immediately face to face with a volley of arrows from Durga. The demon escaped yet again and then having assumed the form of a huge elephant, battered Durga's lion with a tusk. With her sword Durga hacked the tusk into pieces.

The Victory

The demon reverted once more to the form of the wild buffalo. He hid himself in the mountains from where he hurled boulders at Durga with his horns. Durga drank the divine nectar, the gift of Kuber. She then pounced on Mahishasura, pushing him to the ground with her left leg. She grasped his head in one hand, pierced him with her sharp trident held in another, and with yet another of her ten hands she wielded her bright sword, beheading him. At last he fell dead, and the scattered surviving remnants of his once invincible army fled in terror.

Monday, 22 September 2014

श्रीमद् भगवदगीता - पहला अध्याय

श्रीमद् भगवदगीता



श्रीमद् भगवदगीता

पहले अध्याय का माहात्म्य

श्री पार्वती जी ने कहाः भगवन् ! आप सब तत्त्वों के ज्ञाता हैं | आपकी कृपा से मुझे श्रीविष्णु-सम्बन्धी नाना प्रकार के धर्म सुनने को मिले, जो समस्त लोक का उद्धार करने वाले हैं | देवेश ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हूँ, जिसका श्रवण करने से श्रीहरि की भक्ति बढ़ती है |

श्री महादेवजी बोलेः जिनका श्रीविग्रह अलसी के फूल की भाँति श्याम वर्ण का है, पक्षिराज गरूड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान महाविष्णु की हम उपासना करते हैं |

एक समय की बात है | मुर दैत्य के नाशक भगवान विष्णु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुखपूर्वक विराजमान थे | उस समय समस्त लोकों को आनन्द देने वाली भगवती लक्ष्मी ने आदरपूर्वक प्रश्न किया |

श्रीलक्ष्मीजी ने पूछाः भगवन ! आप सम्पूर्ण जगत का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है?

श्रीभगवान बोलेः सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूँ | यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान वेदों का सार-तत्त्व निश्च्चित करते हैं | वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग-शोक से रहित, अखण्ड आनन्द का पुंज, निष्पन्द तथा द्वैतरहित है | इस जगत का जीवन उसी के अधीन है | मैं उसी का अनुभव करता हूँ | देवेश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता सा प्रतीत हो रहा हूँ |

श्रीलक्ष्मीजी ने कहाः हृषिकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं | आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है | इस चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं | आप सर्वसमर्थ हैं | इस प्रकार की स्थिति में होकर भी यदि आप उस परम तत्त्व से भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये |

श्री भगवान बोलेः प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक, भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है | शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द स्वरूप होने के कारण एकमात्र सुन्दर है | वही मेरा ईश्वरीय रूप है | आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जानने योग्य है | गीताशास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है | अमित तेजस्वी भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करे हुए कहाः भगवन ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है? मेरे इस संदेह का निवारण कीजिए |

श्री भगवान बोलेः सुन्दरी ! सुनो, मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ | क्रमश पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो | इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वाङमयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए | यह ज्ञानमात्र से ही महान पातकों का नाश करने वाली है | जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है |

श्री लक्ष्मीजी ने पूछाः देव ! सुशर्मा कौन था? किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई?

श्रीभगवान बोलेः प्रिय ! सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था | पापियों का तो वह शिरोमणि ही था | उसका जन्म वैदिक ज्ञान से शून्य और क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था | वह न ध्यान करता था, न जप, न होम करता था न अतिथियों का सत्कार | वह लम्पट होने के कारण सदा विषयों के सेवन में ही लगा रहता था | हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था | उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था | इस प्रकार उसने अपने जीवन का दीर्घकाल व्यतीत कर दिया | एकदिन मूढ़बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिए किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था | इसी बीच मे कालरूपधारी काले साँप ने उसे डँस लिया | सुशर्मा की मृत्यु हो गयी | तदनन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ भोगकर मृत्युलोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हुआ | उस समय किसी पंगु ने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के लिए उसे खरीद लिया | बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात-आठ वर्ष बिताए | एक दिन पंगु ने किसी ऊँचे स्थान पर बहुत देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया | इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और मूर्च्छित हो गया | उस समय वहाँ कुतूहलवश आकृष्ट हो बहुत से लोग एकत्रित हो गये | उस जनसमुदाय में से किसी पुण्यात्मा व्यक्ति ने उस बैल का कल्याण करने के लिए उसे अपना पुण्य दान किया | तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगों ने भी अपने-अपने पुण्यों को याद करके उन्हें उसके लिए दान किया | उस भीड़ में एक वेश्या भी खड़ी थी | उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के लिए कुछ त्याग किया |

तदनन्तर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गये | वहाँ यह विचारकर कि यह वेश्या के दिये हुए पुण्य से पुण्यवान हो गया है, उसे छोड़ दिया गया फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शील वाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ | उस समय भी उसे अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण बना रहा | बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करने वाले कल्याण-तत्त्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया और उसके दान की बात बतलाते हुए उसने पूछाः 'तुमने कौन सा पुण्य दान किया था?' वेश्या ने उत्तर दियाः 'वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है | उससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो गया है | उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिए दान किया था |' इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा | तब उस तोते ने अपने पूर्वजन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया |

शुक बोलाः पूर्वजन्म में मैं विद्वान होकर भी विद्वता के अभिमान से मोहित रहता था | मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्या भाव रखने लगा | फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा | उसके बाद इस लोक में आया | सदगुरु की अत्यन्त निन्दा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ | पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता-पिता से वियोग हो गया | एक दिन मैं ग्रीष्म ऋतु में तपे मार्ग पर पड़ा था | वहाँ से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओं के आश्रय में आश्रम के भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया | वहीं मुझे पढ़ाया गया | ऋषियों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय की आवृत्ति करते थे | उन्हीं से सुनकर मैं भी बारंबार पाठ करने लगा | इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेलिये ने मुझे वहाँ से चुरा लिया | तत्पश्चात् इस देवी ने मुझे खरीद लिया | पूर्वकाल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था, जिससे मैंने अपने पापों को दूर किया है | फिर उसी से इस वेश्या का भी अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसी के पुण्य से ये द्विजश्रेष्ठ सुशर्मा भी पापमुक्त हुए हैं |

इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीता के प्रथम अध्याय के माहात्म्य की प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर अपने-अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे, फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये | इसलिए जो गीता के प्रथम अध्याय को पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है, उसे इस भवसागर को पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती |




पहला अध्यायःअर्जुनविषादयोग

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बना कर समस्त विश्व को गीता के रूप में जो महान् उपदेश दिया है, यह अध्याय उसकी प्रस्तावना रूप है | उसमें दोनों पक्ष के प्रमुख योद्धाओं के नाम गिनाने के बाद मुख्यरूप से अर्जुन को कुटुंबनाश की आशंका से उत्पन्न हुए मोहजनित विषाद का वर्णन है |

।। अथ प्रथमोऽध्यायः ।।

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।1।।



धृतराष्ट्र बोलेः हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? (1)



संजय उवाच

दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसंङगम्य राजा वचनमब्रवीत्।।2।।



संजय बोलेः उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहाः (2)



पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।3।।



हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये |(3)



अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।4।।

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंङगवः।।5।।

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।6।।



इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशीराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी, युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र ये सभी महारथी हैं | (4,5,6)



अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य संञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।7।।



हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए | आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ |



भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंञ्जयः।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।8।।



आप, द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा | (8)



अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।

नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।9।।



और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों से सुसज्जित और सब के सब युद्ध में चतुर हैं | (9)



अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।10।।



भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है | (10)



अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।11।।



इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें | (11)



संजय उवाच

तस्य संञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।

सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख्ङं दध्मौ प्रतापवान्।।12।।



कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया | (12)



ततः शंख्ङाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।13।।



इसके पश्चात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे | उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ | (13)



ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंख्ङौ प्रदध्मतुः।।14।।



इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये |(14)



पाञ्चजन्यं हृषिकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।

पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख्ङं भीमकर्मा वृकोदरः।।15।।



श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया | (15)



अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।

नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।16।।



कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पकनामक शंख बजाये | (16)



काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।

धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यिकश्चापराजितः।।17।।

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।

सौभद्रश्च महाबाहुः शंख्ङान्दध्मुः पृथक् पृथक्।।18।।



श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु-इन सभी ने, हे राजन ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाये |



स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।

नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।19।।



और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात् आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिये | (19)



अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।

प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।20।।

हृषिकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।21।।



हे राजन ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हए धृतराष्ट्र सम्बन्धियों को देखकर, उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषिकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहाः हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए |



यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्ध्रुकामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे।।22।।



और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्धरुप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये | (22)



योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।23।।



दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा | (23)



संजयउवाच

एवमुक्तो हृषिकेशो गुडाकेशेन भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।24।।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।

उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनिति।।25।।



संजय बोलेः हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख | (24,25)



तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।26।।

श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरूभयोरपि।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेय़ः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।27।।

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निमब्रवीत्।



इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा | उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करूणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले |(26,27)



अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।28।

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।29।।



अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन-समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प और रोमांच हो रहा है |



गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।30।।



हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ |(30)



निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।31।।



हे केशव ! मैं लक्ष्णों को भी विपरीत देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता | (31)



न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।32।।

हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही | हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? (32)



येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्तवा धनानि च।।33।।



हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं | (33)



आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।34।।

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं | (34)



एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।35।।



हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या? (35)



निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।

पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः।।36।।



हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा | (36)



तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।37।।



अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? (37)



यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।38।।

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।39।।



यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जाननेवाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?



कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।40।।



कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है |(40)



अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।।41।।



हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है |(41)



संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।42।।



वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है | लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं |(42)



दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।43।।



इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं | (43)



उत्सन्कुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।44।।



हे जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं |



अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।45।।



हा ! शोक ! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गये हैं | (45)



यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।46।।



यदि मुझ शस्त्ररहित और सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा | (46)



संजय उवाच

एवमुक्तवार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।47।।

संजय बोलेः रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये |(47 |

ॐ तत्सदिति श्रीमदभगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः | |1 | |

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्ररूप श्रीमदभगवदगीता के

श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'अर्जुनविषादयोग' नामक प्रथम अध्याय संपूर्ण हुआ |

Thursday, 18 September 2014

जरुरी है गंगा को बचाना



हिमालय के शिखर गोमुख से निकलकर बंगाल की खाड़ी में मिलने वाली गंगा भारतवासियों के लिए धार्मिक एकता, श्रद्धा, सनातन महत्व, आध्यात्मिक और पतितपावनी के रूप में पूज्य है. इसमें दो राय नहीं कि इसके तट पर हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हुआ है.

यदि हम वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो गंगा क्षेत्र में रहने वाली करीब 35 करोड़ की आबादी अपने जीवन के लिए गंगा पर निर्भर रहती है. यही कारण है कि गंगा को सभी धर्मो में भारत की भाग्य रेखा भी कहा गया है.


वर्तमान में स्थिति यह है कि पिछले कुछ दशकों से विकास की अंधी दौड़ में गंगा के उद्गम क्षेत्र से लेकर पूरे गंगा क्षेत्र में किए गए अवांछनीय परिवर्तनों ने संपूर्ण गंगा के ही अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. इस ओर यदि अविलंब ध्यान नहीं दिया गया तो पूरी गंगा सूख जाएगी और गंगा के प्रवाह क्षेत्र में रहने वाली करीब 35 करोड़ की आबादी का जीवन और भारत की अस्मिता खतरे में पड़ जाएगी.

राष्ट्रीय वन्य जीव अभयारण्य जैसा संरक्षण गंगा को मिलना चाहिए. इस हेतु गंगा संरक्षण कानून बने, गंगा में गिरने वाले सभी गंदे नाले, मल-मूत्र और औद्योगिक प्रदूषण को तुरंत प्रभाव से रोका जाए. गंगा संरक्षण हेतु राष्ट्रीय गंगा आयोग गठित किया जाए. गंगा का शोषण किसी भी रूप में नहीं किया जाए. इसमें चल रहा खनन, भूजल, शोषण आदि सब पर रोक लगाई जाए.

आज जो हाल गंगा का है, वही हाल अन्य नदियों का भी है. इस लिहाज से जल संसाधनों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार तो सभी जगह आवश्यक है. गंगा रक्षा के लिए समय-समय पर समाज, राज एवं संतों ने मिलकर काम किया है. नतीजतन भारत के किसानों, मछुआरों, पुजारियों, पंडों, ब्राrाणों सभी की यह जीवन रेखा बनी रही है. इसने भारत की एकता, अखंडता और संस्कृति को बनाकर रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

आज इस पर गहरा संकट है. स्थिति यह है कि अतिक्रमण, प्रदूषण और भूजल के शोषण ने गंगा की हत्या कर दी है. हम चाहते हैं कि गंगा नैसर्गिक रूप में सदानीरा बहती रहे. इसके लिए सर्वप्रथम तो गंगा नदी को एक राष्ट्रीय नदी के रूप में घोषित किया जाए और जिस तरह से राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार गंगा को सम्मान एवं सुरक्षा प्रदान की जाए.

गंगा की पवित्रता और अविरलता को बनाए रखने हेतु इस पर विकास के नाम पर हो रहे विनाश को रोकना अतिआवश्यक है. इससे भी पहले आवश्यक यह है कि गंगा के ऊपरी हिस्से में किसी भी तरह की छेड़छाड़ न की जाए. उत्तराखंड में गंगा की जो धाराएं हैं वह उसकी बाल्यकाल और किशोर अवस्था है. नदियों से ऐसी स्थिति में छेड़छाड़ करना उनकी हत्या के समान है.

आज गंगा को समूल नष्ट किए जाने की खातिर उत्तराखंड में ऊर्जा के नाम पर नदियों पर 10,000 मेगावाट बिजली बनाने के लिए बांध, बैराज और सुरंग बनाई जा रही है जबकि असलियत में उत्तराखंड राज्य की 2008 में अपनी बिजली की कुल खपत 737 मेगावाट है. यदि दूसरे राज्यों को दी जाने वाली बिजली को जोड़कर देखा जाए तो ऊर्जा की कुल खपत 1500 मेगावाट बनती है.


वर्ष 2022 तक इस राज्य की ऊर्जा की कुल खपत बढ़कर 2849 मेगावाट होगी. इतनी बिजली इस राज्य में नदियों के नैसर्गिक प्रवाह को बनाए रखते हुए भी बनाई जा सकती है. फिर इस राज्य में गंगा के साथ ऐसी छेड़छाड़ क्यों हो रही है. यह समझ से बाहर है और विडंबना यह है कि इसका उत्तर सरकार के पास भी नहीं है.

इस समय जो महत्वपूर्ण मुद्दे हैं उनमें पहला यह है कि भागीरथी गंगोत्री से उत्तर काशी तक अपने नैसर्गिक स्वरूप में बहे. गंगा व अन्य नदियों के उद्गम से अंतिम छोर तथा उनके प्रवाह स्थिति का एक समय सीमा के अंतर विस्तृत अध्ययन और इन जल स्रोतों के स्वाभाविक प्रभाव व शुद्धता को संरक्षित करने संबंधी नीति बने. इसके अलावा गंगा को भारत की राष्ट्रीय नदी घोषित किया जाए.

राष्ट्रीय वन्य जीव अभयारण्य जैसा संरक्षण गंगा को मिलना चाहिए. इस हेतु गंगा संरक्षण कानून बने, गंगा में गिरने वाले सभी गंदे नाले, मल-मूत्र और औद्योगिक प्रदूषण को तुरंत प्रभाव से रोका जाए. गंगा संरक्षण हेतु राष्ट्रीय गंगा आयोग गठित किया जाए. गंगा का शोषण किसी भी रूप में नहीं किया जाए. इसमें चल रहा खनन, भूजल, शोषण आदि सब पर रोक लगाई जाए. गंगा की भूमि का उपयोग किसी भी दूसरे काम में नहीं किया जाए.

इसके लिए भारत में एक प्रभावी नदी नीति का होना बहुत जरूरी है. गंगा के जल-प्रवाह को अविरल व निर्मल सुनिश्चित किया जाए. ऐसी व्यवस्था सभी संबंधित राज्य सरकारों को करना जरूरी है. इस हेतु प्रत्येक राज्य में नदी नीति बने.

हिमालय से गंगा सागर तक बहने वाली गंगा से जुड़ी सभी नदियों को पवित्र गंगा ही मानकर इनका नैसर्गिक प्रवाह सुनिश्चित किया जाए. गंगा के प्रवाह में बाधक सभी संरचनाओं को हटाया जाए. पंडित मदनमोहन मालवीय के साथ 1916 में गंगा प्रवाह के संबंध में हुए समझौते को लागू किया जाए और गंगा संरक्षण हेतु एक स्वतंत्र पर्यावरण सामाजिक वैज्ञानिक की अध्यक्षता में भारत सरकार गंगा आयोग का गठन करें.

Sunday, 7 September 2014

सत्संग और प्रार्थना की महिमा तथा महत्व

                                                            बिनु सत्संग विवेक न होई |
                                                            राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ||

इस मंत्र में श्री राम की महिमा का गुणगान किया गया है, और तुलसीदास जी ने श्री राम प्रभु के सत्संग का चित्रण किया है कि बिना सतसंग किये विवेक अर्थात ज्ञान नहीं होता है और सत्संग नहीं करने से राम कृपा भी नहीं होगी जिससे आप सुलभता अर्थात सरलता से सो नहीं सकते, यहाँ तुलसीदास जी ने सोने का तात्पर्य मोक्ष प्राप्ति से लिया है तथा सुलभ न सोई अर्थात आप सुलभता से नहीं मर सकते और अगर राम का नाम नहीं लिया तो जीवन में बहुत कष्ट उठाने पड़ते है और जीवन मृत्यु के सामान हो जाता है |

अत: प्रत्येक मनुष्य को भगवान का भजन और कीर्तन करना चाहिए जिससे उसका प्रारब्ध सुधरे और जीवन में सुख और शांति बनी रहे |

Monday, 21 July 2014

Lyrics Of Hey Bhole Shankar Padharo

Here is the lyrics of ‘Hey Bhole Shankar Padharo‘ song from hindi movie ‘Shiv Mahima‘.

Hey bhole hey bhole shankar padharo
Hey bhole sambhu padharo
Baithe chup ke kaha
Jata dhaari padharo
Baithe chup ke kaha
Ganga jaata mei tumhari
Ho ho ganga jaata mei tumhari
Hum pyaase yaha
Maha saati ke pati
Meri suno bhandana

Hey bhole shankar padharo
Bolo chupe ho kaha
Aoo mukti ke daata ho
Aoo mukti ke daata
Pada sankat yaha
Maha saati ke pati
Bolo chuppe ho kaha
Hey bhole shankar ……

Bhaagirat ko ganga prabhu tunne de thi
Gagardin ke putro ko mukti milli
Neil kant mahadev humme hai bharosa
Eicha tumhare bin kuch bhi na hota
Hey bhole shambhu padharo
Hey gauri shankar padharo
Kisne rooka waha
Aoo bhasmas ramiya
Sabko saj ke yaha

Mere tapasya ka phaal chahe lelo
Ganga jaal ab apne bhakto ko dedo
Praan pakheru kahin pyasa udh jaye na
Koi tere karoona pei ugli uthaye na
Biksha mai mangoon jaal kaliyan ki
Biksha mai mangoon jaal kaliyan ki
Isha karo puri janga isnaan ki
Ab na dher karo
Aake kast haro
Mere baat rak lo
Mere laaz rak lo
Hey bhole ganjdhar padharo
Hey bhole vish dhar padharo
Door toot gaye na
Mera jag mei nahi koi tere bina

Hey bhole hey bholo shankar padharo
Hey bhole sambhu padharo
Baithe chup ke kaha
Jata dhaari padharo
Baithe chup ke kaha
Ganga jaata mei tumhari
Ho ho ganga jaata mei tumhari
Hum pyaase yaha
Maha saati ke pati
Meri suno bhandana